किसी जमाने में हांसी को आसी व आसीगढ के नाम से जाना जाता था क्योंकि यहां पर अव्वल दर्जे की तलवारें बनाई जाती थीं. विश्वभर में तलवारों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध इस स्थान का आज भी पुरातत्विक महत्व है. वर्तमान में आज भी यहां पर पृथ्वीराज चौहान का क़िला है जो पुरातत्व विभाग से अधिगृहित है.इस क़िले का एक गेट आज भी अच्छी हालात में है. जिसे बड़सी गेट के नाम से जाना जाता है. बाजार के बीचों-बीच स्थित बड़सी गेट के नीचे से लोग गुजरते हैं .
यह भव्य दरवाजा आज भी हांसी शहर की सुंदरता में चार चांद लगाता है. पृथ्वी राज चौहान के क़िले व बड़सी दरवाजे को देखने के लिए आज भी दूर -दूर से पर्यटन यहां आते हैं. अंग्रेजों ने यहां पर सेना का केंट बनाया था. यही पर हार्स रेजीमेंट की स्थापना की गई थी. आज भी शहर में हिंदु व जैन धर्म के बहुत से मंदिर है. यहां मुस्लिम समुदाय की चारकुतुब दरगाह विश्व प्रसिद्ध दरगाह है. विदेशों से भी मुस्लिम श्रद्धालु यहां नमाज अदा करने आते हैं.
समय -समय पर आने वाले यात्रियों ने इसके वैभव और समृद्धि का बखूबी वर्णन किया है. राजा हर्ष के समय हांसी सतलुज प्रांत की राजधानी थी. जनवरी 1038 ईस्वी तक इसे हिंदुस्तान की दहलीज भी कहा जाता था. उस समय यह कहावत प्रचलित थी कि जो भी शासक इस दहलीज को लांघ लेगा,वह हिंदुस्तान पर राज करेगा. कालांतर में यही हुआ . राजपूत काल तक हांसी इस उपमहाद्वीप का एक शक्तिशाली नगर बन गया था. तंवर काल में इसके आस पास मिलने वाले लोहे की गुणवत्ता को देखते हुए हांसी दुर्ग में उच्च कोटि की तलवारों का निर्माण किया जाने लगा था. तलवारों में इसकी गुणवत्ता विदेशों तक में प्रचलित होने लगी थी. इसलिए इसका नाम आसि,आसीका के नाम से प्रचलित हुआ. खाड़ी देशों में इसको हांसी के नाम से जाना गया.
तंवरो के बाद जब दिल्ली की सत्ता अजमेर चौहान के हाथों में आई ,तब इनके काल में हांसी को विशेष धार्मिक दर्जा प्राप्त हुआ. हांसी के अजेय दुर्ग पर महमूद गजनवी के बेटे मसूद ने एक बड़ी सेना के साथ आक्रमण करके 31 दिसंबर 1038 के दिन फतेह हासिल की लेकिन चंद दिनों के बाद राजपूतों ने फिर से इस पर अपना कब्जा जमा लिया.
चौहान काल में जैन धर्म यहां का राज धर्म बना. सम्राट पृथ्वीराज चौहान के समय में यहां के किलेदार कलहन ने इस क्षेत्र को ओर अधिक शक्तिशाली बनाया.उसने इसकी पश्चिमी सीमा पर उत्पात मचाने वाले लाहौर सुल्तान अमीर खुसरो ताजुदौला को हराकर शांति कायम की, ओर राजपूताना की सीमा का विस्तार पंचपुर (पिंजौर) तक कर दिया. महाराजा पृथ्वी राज चौहान ने इस अभियान में उसके साथ हिस्सा लिया. इस विजय की यादगार में यहां एक बड़ा सिंह दरवाजे एवं अन्नागार का निर्माण करवाया गया था. दरवाजे पर संस्कृत भाषा में शिलालेख लिखे गए थे. वर्तमान में इसी दरवाजे को बड़सी गेट के नाम से जाना जाता है.
फिरोजशाह तुगलक ने इस क्षेत्र को सिंचित करने के लिए विलुप्त नदी हषदवती के बहाव के तल की खुदाई करवाकर चिंतग नहर का निर्माण करवाया.यह नहर हांसी से हिसार होते हुए भादरा तक चली गई थी. सन् 1893 में गांव मसुदपुर में तांबे के अंगुठी के आकार के सिक्के मिले थे जो मोहम्मद शाह व गयासुद्दीन के काल के थे. इन सिक्कों को उस समय के उपायुक्त हिसार ने कलकत्ता भेज दिया था. 1857 की क्रांति में यहां से भाग लेने वाले सैनिकों की गाथा व अंग्रेजी हुकूमत द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों के दमन की गाथा लाल सड़क व डडल पार्क का स्थान आज भी बयां करते हैं.
संग्राम में भाग लेने वाले यहां के नागरिकों का इतिहास भी कम नहीं है. शहीद यति पूर्णानंद की समाधि आज भी उनके बलिदान की याद दिलाती है. वर्ष 1947 में मिली आजादी के बाद हांसी ने उपमंडल के दर्ज के साथ एक नये युग में प्रवेश किया. हांसी के बाद बसे हिसार को जिले का दर्जा प्राप्त है. लेकिन हांसी को अभी तक जिले का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है. हालांकि हांसी पुलिस जिला है और यहां के लोग हांसी को जिला बनाने की मांग की सालों से कर रहे हैं.
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