सोनीपत | अगर आप दिल्ली- एनसीआर में रहते हैं और आपने अभी तक मुरथल में पराठे नहीं खाए हैं, खासतौर पर अमरीक- सुखदेव ढाबे से, तो ऐसा शायद ही मुमकिन हो. पिछले 68 सालों से हर दिन हजारों की भीड़ को इस ढाबे पर पराठा खिलाने का काम हो रहा है. तो आईए जानते हैं कौन है अमरीक और सुखदेव? जिनका यह ढाबा है.
सरदार लक्ष्मण सिंह ने की थी शुरुआत
कहानी की शुरुआत होती है लुधियाना के मिलरगंज से. यहां सरदार लक्ष्मण सिंह ढाबे का संचालन करते थे. ट्रक ड्राइवर के बीच उनका यह ढाबा काफी ज्यादा प्रसिद्ध था. सरदार लक्ष्मण सिंह निसंतान थे. उन्हें सिर्फ यह चिंता थी कि उनके बाद इस ढाबे को कौन चलाएगा. इनकी दो बहनें थी. एक बहन के चार बेटे थे, जिनमें से एक प्रकाश सिंह को उन्होंने गोद ले लिया. उनकी दूसरी बहन भी चाहती थी कि उसके बेटे को भी लक्ष्मण सिंह गोद ले ले. फिर लक्ष्मण सिंह ने अपनी दूसरी बहन के बेटे लाल सिंह को भी गोद ले लिया और इन सब के साथ ढाबे का संचालन करने लगे. कुछ दिनों बाद ही दोनों चचेरे भाइयों के बीच कहा- सुनी भी शुरू हो गई.
1956 में आये थे मुरथल
इन सब बातों का जिक्र रुथ डिसूजा प्रभु ने अपनी किताब ‘इंडिया’स मोस्ट लीजेंडरी रेस्टोरेंट’ में किया है. उसमें लिखा है कि दोनों भाइयों की अनबन के बाद लक्ष्मण सिंह ने प्रकाश सिंह को नई जगह ढाबा खोल कर देने का निर्णय लिया. ऐसे में साल 1956 में प्रकाश सिंह मुरथल आ गए. उस समय तक यहां पर एक- दो ही ढाबे थे, लेकिन वह इतने ज्यादा मशहूर नहीं थे. वर्तमान में जहां अमरीक- सुखदेव ढाबा है, उससे करीब 4 किलोमीटर की दूरी पर प्रकाश सिंह ने मुरथल पर एक जगह किराए पर ले ली. नीचे ढाबा चलता था और ऊपरी मंजिल पर प्रकाश सिंह और उसकी पत्नी रहने लगे.
दुकान के मालिक ने बढ़ा दिया किराया
कुछ ही समय में उनका ढाबा प्रसिद्ध हो गया. उस समय तक वह ढाबे पर बहुत सिंपल खाना, जिसमें दाल- रोटी के अलावा तीन तरह के पराठे- आलू, प्याज और मिक्स लोगों को सर्व कर रहे थे. ढाबा पॉपुलर होने से जगह के मालिक ने दुकान का किराया बढ़ाने की सोची. ऐसे में प्रकाश सिंह ने 60 के दशक में इस ढाबे से कुछ दूरी पर एक और जगह ले ली और वहां अपना ढाबा चलाना शुरु कर दिया. वहां भी ट्रक वालों की काफी भीड़ होनी शुरू हो गई क्योंकि वहां खाना तो अच्छा था ही साथ ही ट्रक को पार्क करने की अच्छी खासी जगह थी.
प्रकाश सिंह के हुए दो बेटे- अमरीक और सुखदेव
कुछ समय बाद प्रकाश सिंह को दो बेटे हुए जिनके नाम अमरीक और सुखदेव रखे गए. साल 1982 में प्रकाश सिंह की जैसे जिंदगी ही बदल गई. भारत में एशियन गेम्स का आयोजन किया जा रहा था. Nh1 का हाईवे जो दो लेन का था, अब सरकार द्वारा उसे चार लेन का करने का फैसला किया गया. ढाबे के सामने पार्किंग वाली जगह को ले लिया गया. अब वहां कोई भी जगह नहीं बची थी. मजबूरी में तीसरी बार उनको अपना ठिकाना बदलना पड़ा. ₹300 महीने के रेट से एक नई दुकान ले ली गई. 30 साल यहीं पर ढाबा चलाया गया.
आज भी जहां अमरीक- सुखदेव ढाबा मौजूद है, यह वही जगह है जिसे प्रकाश सिंह ने किराए पर लिया था. साल 1995 में इसे खरीद लिया गया. कुछ टाइम बाद ही इसे एक ग्रैंड ढाबा बना दिया गया.
साल 1985 में ढाबे को दिया नया नाम
रूथ डिसूजा प्रभु ने अपनी किताब में लिखा है कि हालांकि प्रकाश सिंह का ढाबा काफी मशहूर था, लेकिन साल 1985 तक उसका कोई नाम नहीं था. तब दोनों बेटों ने अपने पिता से सलाह मशवरा करके ढाबे का नाम रखा, अमेरिक- सुखदेव ढाबा. अमरीक सिंह बताते हैं कि पिताजी का ट्रक ड्राइवर से साथ काफी लगाव रहा है. वह उनकी सभी जरूरतों को बारीकी से समझते थे. इसलिए नए ढाबे में ट्रक ड्राइवर का खास ध्यान रखा गया. इसमें ट्रक ड्राइवर के लिए वेलमेंटेड बाथरूम व वॉशरूम का भी खास ध्यान रखा गया.
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