रोहतक । स्वतंत्रता दिवस की खुशी मनाने के साथ-साथ रोहतक शहर के इतिहास को भी जानना जरूरी है. भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद हालातों में बदलाव देखने को मिला. बंटवारे के वक्त सैकड़ों परिवार पाकिस्तान से यहां आकर बसे. इस दौरान रोहतक में कैंपों में दिन गुजारने पड़े. बंटवारा होने से जो सपने दम तोड़ गए थे, रोहतक आकर उन सपनों को पूरा किया. यें आंखें रोहतक शहर के बदलाव की गवाह है. पाकिस्तान से आएं कई बुजुर्गों ने बताया कि यहां आकर उन्होंने अपनी मेहनत से सफलता हासिल की हैं और वे खुश हैं कि पड़ोसी देश के हालात आज भी बदतर है.
बुजुर्गों की जुबानी , रोहतक शहर में हुएं बदलावों की आपबीती::::
1. गांधी कैंप – पक्के मकानों के साथ रेलगाड़ी की सीटी भी सुनी : सतराम दास भूटानी
87 वर्षीय सतराम दास भूटानी बताते हैं कि बंटवारे के समय वो महज 12 साल के थे. उन्हें कलानौर गांव में जमीन अलॉट हुई थी. 1960 में जवाहर नगर आकर बस गए थे. डीएलएफ कालोनी में कुछ मकानों का निर्माण हो चुका था. सेक्टर-1 की जमीन पर घना जंगल था. उस वक्त दिल्ली रोड़ की चौड़ाई महज 9-10 फीट थीं.
गांधी कैंप बाजार के निकट रोहतक- पानीपत रेलवे लाईन पर बांस का पुल बना हुआ था. 1962 में इस रुट पर रेलगाड़ी दौड़ने लगी थी. मैना पर्यटन केंद्र के नजदीक स्थित जनस्वास्थ्य विभाग के जलघर से पानी की आपूर्ति थीं. लोग यही से मटकों में पानी भरकर लाते थे. पुलिस साईकिल पर चला करती थीं और ड्रेस में पगड़ी पहनी जाती थी.
2. डेंटल कॉलेज की जमीन के निकट ही था शमशान घाट: गोपी चंद
82 वर्षीय गोपी चंद ने बताया कि बंटवारे के समय उनकी उम्र केवल 10 वर्ष थी. डेंटल कॉलेज के नजदीक वाली जमीन पर शमशान घाट हुआ करता था. डी- पार्क और आदर्श नगर के आसपास खाली जमीन थी. बरसाती पानी की निकासी के लिए गांधी कैंप, सोनीपत रोड़ के अलावा 8-9 तालाब बने हुए थे.
3. झंग कालोनी से दिन में गुजरते समय भी लगता था डर : कश्मीरी लाल
72 वर्षीय कश्मीरी लाल बताते हैं कि जब हमें कोई पाकिस्तानी कहकर बुलाते थे तो दिल में दर्द होता था. बंटवारे से पहले दोनों मुल्क एक ही थे. लघु सचिवालय के नजदीक ही अधिकारीयों के बैठने के लिए छोटे-छोटे कमरे हुआ करतें थे. पीने के लिए कुएं का पानी था. गांधी कैंप में जंगल था और शहर से एक किलोमीटर की दूरी थी.
4. तांगे ही थे आवागमन का साधन: जगदीश नागपाल
71 वर्षीय जगदीश नागपाल ने बताया कि भिवानी स्टैंड से पीजीआई तक तांगे चलते थे. आमदनी के स्त्रोत कम थे तो लोग पैदल चलना पसंद करते थे. 1971 में इसी रुट पर पहली बार बस चली थी. गांधी कैंप के सरकारी स्कूल में बच्चों के बैठने के लिए कमरों की संख्या कम थी तो पेड़ों के नीचे बैठकर पढ़ाई किया करते थे. उन्होंने बताया कि कालोनियों की गलियों तक पानी की पाईप लाईन पहुंची.
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