विशेषज्ञों ने दी जानकारी, पशुओं में भी हो सकता है टिटनेस रोग, जानें बचाव के तरीके

हिसार । धुनषबाय जिसे इंग्लिश में टिटनेस के नाम से भी जाना जाता है . यह क्लोस्ट्रीडियम टिटेनाई नामक जीवाणु से पशुओं में होने वाला एक घातक संक्रामक रोग है. लगभग सभी प्रजातियों के पशुओं के साथ-2 यह रोग मनुष्य में भी पाया जाता है. घोड़े एवं खच्चर प्रजाति के पशु इस रोग के लिए अन्य पशुओं से ज्यादा संवेदनशील होते हैं.

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यह रोग कैसे एवं क्यूं होता है

क्लोस्ट्रीडियम टिटेनाई नामक जीवाणु एवं इससे उत्पन्न विष के प्रभाव से टिटनेस रोग होता है. यह एक मृदा जनित रोग है क्योंकि इसके कारक जीवाणु मिट्टी में बहुतायत में पाएं जाते हैं. इन जीवाणुओं की स्पोर (बीजाणु) अवस्था मिट्टी एवं पशुओं के गोबर इत्यादि में कई वर्षों तक जीवित रह सकती हैं, जो कि पशुओं एवं मनुष्य में इस रोग के संक्रमण का कारण बनते हैं.

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किसी नुकीली वस्तु एवं लोहे की वस्तु से पशु के शरीर पर होने वाले गहरे घाव मख्य रूप से इस राेग के सक्रंमण का कारण बनते हैं। पशु की जेर हाथ से निकालते समय साफ-सफाई न रखने पर भी इस रोग का संक्रमण फैलता है. भेड़ की ऊन काटते समय होने वाला घाव भी इस रोग के संक्रमण का कारण बन सकता है. इसके अलावा खेती-बाड़ी के कामों में पशुओं को चोट लग जाती है जिसके कारण भी पशुओं में टिटनेस होने की संभावना बनी रहती है.

रोग के लक्षण

इस रोग के लिए जिम्मेदार जीवाणु से उत्पन्न होने वाले विष की प्रकृति स्नायु- तंत्र को प्रभावित करने वाली होती है. इस रोग से प्रभावित पशुओं में कान खड़े रखना, गर्दन में खिंचाव,उठी हुई पूंछ ,अति संवेदनशीलता इत्यादि लक्षण नजर आते हैं. बकरियों के शरीर की मांसपेशियों में खिंचाव आ जाता है जिससे उनका शरीर लकड़ी की तरह अकड़ जाता है. पशुओं के जबड़ों में अत्यधिक जकड़न एवं खिंचाव हों जाता है जिससे उसे चारा खाने एवं पानी पीने में परेशानी होती है. अत्यधिक प्रभावित पशु धराशाई हो जाता है और उसकी मौत हो जाती है.

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उपचार

पशुपालकों को सलाह दी जाती है कि शुरुआती लक्षण नजर आते ही इस रोग का उपचार शुरू करें. अत्यधिक प्रभावित पशु का उपचार संभव नहीं है. टिटनेस ऐंटीटोक्सिन का प्रयोग भी इस रोग की चिकित्सा में अति प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है. पशु चिकित्सकों द्वारा इस रोग के उपचार के लिए पेनीसीलीन नामक एंटीबायोटीक का प्रयोग किया जाता है.अत्यधिक द्रव्य (ग्लुकोज/सलाईन) का रक्त मार्ग से प्रयोग भी इसके ईलाज के दौरान पशु-चिकित्सक द्वारा किया जाता है जो कि पशु के शरीर से इसके जीवाणु द्वारा उत्पन्न विष की मात्रा को बाहर निकालने में अति प्रभावकारी है. इसके अतिरिक्त पशु के घाव वाली जगह को अच्छी तरह से साफ करना बेहद जरूरी है. पशु चिकित्सक से पशु का उचित एवं पूरा उपचार करवाएं. रोग के उपचार में देरी पशु की मौत की वजह बन सकती है.

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