झज्जर | ब्रिटिश शासन के दौरान झज्जर अंग्रेजों के लिए कितना महत्वपूर्ण था. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब अंग्रेजों ने सभी आवश्यक खाद्य पदार्थों पर कानून लागू किया और इसके उत्पादन और बिक्री पर अंकुश लगाया तो झज्जर एक निगरानी केंद्र भी था. इसके लिए अंग्रेजों ने पाकिस्तान के मुल्तान से मध्य प्रदेश तक एक सीमा शुल्क लाइन बनाई थी, जिसे परमिट लाइन भी कहा जाता था. तब झज्जर और बेरी भी इसकी महत्वपूर्ण चौकियां थीं जहां विशेष रूप से नमक की कालाबाजारी रोकने के लिए जांच दल तैनात किया गया था.
अंग्रेजों ने नमक पर भी लगा दिया था कर
झज्जर ब्रिटिश राज के दौरान अंग्रेजों के लिए एक महत्वपूर्ण रियासत थी. आयरलैंड के निवासी जॉर्ज थॉमस को यहां पहले प्रशासक के रूप में तैनात किया गया था. जिनके नाम पर बाद में जॉर्ज गढ़ का नाम रखा गया, जिसे अब जहाजगढ़ शहर कहा जाता है. उस समय बेरी और झज्जर व्यापार के प्रमुख केंद्रों में से एक हुआ करते थे. झज्जर के इतिहासकार यशपाल गुलिया के अनुसार, अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन के दौरान सभी आवश्यक खाद्य पदार्थ पर कर लगा दिया था. अंग्रेजों ने आजकल के सबसे सस्ते पदार्थ नमक पर भारी कर लगा दिया था.
कालाबाजारी रोकने के लिए बनाई चौकियां
नमक के उत्पादन और बिक्री पर इतना अधिक अंकुश लगा, कि इसके लिए उन्होंने 1842 में एक अलग विभाग बना दिया. फिर नमक और कर की कीमत में वृद्धि से बचने के लिए लोगों ने कालाबाजारी करनी शुरू कर दी. नमक भी उत्पादन क्षेत्रों से चोरी-छिपे बेचा जा रहा था. फिर ब्रिटिश भारतीय रियासतों की मदद से पहरेदारों को खड़ा किया गया. अन्य गार्डों के बीच आसान आवाजाही के लिए मार्ग बनाए गए थे. जिसके चलते 1500 मील लम्बाई का मार्ग बनाया गया और कालाबाजारी रोकने के लिए उस मार्ग पर विभिन्न चौकियां बनाई गईं.
जिसे अंग्रेज कस्टम लाइन या परमिट लाइन कहते थे. उस व्यवस्था को अत्यधिक महत्व देते हुए अंग्रेजों ने एक अंग्रेज कमिश्नर के अधीन 11288 व्यक्तियों का स्टाफ नियुक्त किया था. जिसमें 136 ब्रिटिश अधिकारी और 2500 निम्न स्तर के भारतीय अधिकारी तथा 11288 बीट चौकीदार और गार्ड रखे गए थे.
जगह- जगह बनाए गए नाके
सीमा शुल्क लाइन के साथ- साथ घने नागफनी कांटेदार पेड़ लगा दिए गए थे और लोगों के आने- जाने के लिए केवल द्वार छोड़ दिए गए थे. जिनकी निगरानी की जाती थी और उन स्थानों को नाका कहा जाता था. ऐसी चक चौबंद कस्टम लाइन मुल्तान (पाकिस्तान) से शुरू होकर फाजिल्का, सिरसा, हिसार, महम, कलानौर, बेरी, झज्जर, बादली, मकड़ौला, चंदू, मेवात हथीन, मथुरा, आगरा, इटावा, झांसी, कानपुर मध्य प्रदेश से गुजरती थी.
बादली में देखे गए डाक बंगलों के अवशेष
परमिट लाइन के पास डाक बंगले भी बनाए गए थे, जिन्हें कस्टम हाउस भी कहा जाता था. उन डाक बंगलों के अवशेष 1980 तक बेरी और बादली में देखे जा सकते थे. बेरी में डाकघर अब एक पुलिस स्टेशन के कब्जे में है. एक अंग्रेज ने इस अनूठी परमिट लाइन के बारे में एक पूरी किताब भी लिख डाली थी जिसे द ग्रेट हेज ऑफ इंडिया कहा जाता है.
उन्होंने लिखा कि इस तरह की कालाबाजारी रोकने का ऐसा सिस्टम दुनिया में कहीं नहीं मिलता. 1868 से 1870 तक भारतीय कांग्रेस पार्टी का गठन करने वाले अंग्रेज एओ ह्यूम भी उस कस्टम लाइन के कमिश्नर बने. हयूम ने नमक कर को लेकर राजस्थान के देशी शासकों के साथ एक समझौता किया था और अंग्रेजों को दिए गए सभी अधिकार प्राप्त किए थे.
अंग्रेजों द्वारा बनाई गई सड़क
महम, बेरी, झज्जर, बादली, ढांसा रोड को अंग्रेजों द्वारा नमक की कालाबाजारी रोकने के लिए बनाई गई कस्टम लाइन के ऊपर बनाया गया है. कुछ साल पहले तक बुजुर्गों ने उस मार्ग के किनारे नागफनी के पौधों की बहुतायत देखी है. हैल्सी नाम का एक अंग्रेज कस्टम लाइन का आखिरी कमिश्नर था और 1879 में इस विभाग को ही भंग करना पड़ा था. इसका कारण कर्मचारियों की उच्च लागत और कस्टम लाइन का रखरखाव था.
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