कुरुक्षेत्र I आधुनिक तकनीक से बढ़ेगी और किसानों की इनकम क्योंकि अब करनाल, कुरुक्षेत्र व अंबाला के 100 गांव क्लाइमेट स्मार्ट बनने जा रहे हैं. करनाल, कुरुक्षेत्र , व अंबाला के किसी भी गांव में अब प्राली का एक तिनका नहीं जलाया जायेगा. केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान (Central soil salinity research institute -CSSRI ) इस माडल को सफल बनाने के हेतु दिन -रात एक कर रहा है. ये गांव अब बर्निंग फ्री (ज्वलन मुक्त) होंगे.अवशेषों का सदुपयोग कैसे करें और इनके निस्तारण से कैसे आमदनी ली जा सकती है, इस पर भी संस्थान द्वारा सभी के सम्मुख मॉडल पेश किया जाएगा.
अवश्य ही इस मॉडल द्वारा किसानों की आय दोगुनी होगी और यह कदम भी अच्छा साबित होगा.किसानों को क्लाइमेट स्मार्ट खेती करने के तौर- तरीके भी सिखाए जा रहे हैं.इसमें पानी बचाने और फसल पर कम लागत में अधिक आमदनी के तरीके सिखाने पर किसानों का ध्यान केंद्रित किया गया है.केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान और अंतरराष्ट्रीय मक्का एवं गेहूं सुधार केंद्र दिल्ली द्वारा पेश की गई यह संयुक्त परियोजना है.केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान के प्रधान विज्ञानी डॉ. एचएस जाट ने बातचीत के दौरान बताया कि किसान अवशेष जलाना बंद कर दें तो भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहेगी. अवशेष जमीन पर पड़े रहने से नमी भी बरकरार रहेगी. इससे फसल में पानी की खपत कम होगी. क्षेत्र के जिस भाग में जल संकट है, वहां पानी की कीमत समझी जा सकती है.
प्रधान विज्ञानी डॉ. एचएस जाट अपनी बात को विस्तृत रूप से समझाते हुए ब्यौरा देते हैं कि अगर किसान एक साल में दो से तीन फसलें लेने के लिए 12 बार खेत की जुताई करता है .अपना ट्रैक्टर है तो एक बार में छह लीटर डीजल लगता है.डीजल 65 रुपये प्रति लीटर है,यानी एक बार में 390 रुपये खर्च होते हैं. 12 बार में 4680 रुपये स्पष्ट रूप से खर्च होते हैं. गेहूं, धान में 180 किलोग्राम नाइट्रोजन देनी पड़ती है और मक्का में 175 किलोग्राम नाइट्रोजन देनी पड़ती है.
जानिए किस प्रकार होगा क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर;
- क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर की व्यवस्था होने के बाद 1 साल में महज दो बार खेत जोतने की आवश्यकता है है. वह भी फसल पर निर्भर है.कई फसलों जैसे गेहूं, मक्का में इसकी भी जरूरत नहीं होती. पूर्ण रूप से यह कहना गलत नहीं होगा कि चार हजार रुपये की बचत किसान को होती है.
- महज 120 किलोग्राम नाइट्रोजन में काम चल जाता है, क्योंकि अवशेष गलने के बाद भूमि को नाइट्रोजन की पूर्ति की जाती है.
- मक्का में 145 किलोग्राम से काम चल जाता है.
फसल के अवशेषों को गलाकर खाद बनाने की बात की पुष्टि हो चुकी है:
डॉ. एचएस जाट बताते हैं कि करनाल के 30 व कुरुक्षेत्र और अंबाला के 35 -35 गांवों में क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर पर जल्द ही काम किया जा जाएगा. यह फैंसला वे ले चुके हैं. इन गांवों में फसल अवशेषों में आग नहीं लगाई जाएगी, अपितु जमीन में गलाकर खाद का काम करेंगे. इस योजना से उत्पादन भी अधिक होता है,पानी की बचत होती है और खर्च भी घट जाएगा. प्रधान विज्ञानी डॉ. एचएस जाट का मानना है कि यह भविष्य के लिए अवश्य ही वरदान साबित होगी I