प्रधान पति की प्रथा पर लगेगा विराम, 18 राज्यों में केंद्र सरकार ने करवाया अध्ययन

नई दिल्ली | अक्सर आपने सरपंच पति या प्रधान पति जैसे शब्द जरूर सुने होंगे. यह आज के सामाजिक ताने- बाने को दर्शाते हुए शब्द हैं. आजादी के इतने वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज भी ये शब्द वर्तमान परिवेश में महिला सशक्तिकरण को लेकर किए जा रहे तमाम दावों को खोखला करते नजर आते हैं. अब शायद यह कुप्रथा बंद हो जाए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में इसके विरुद्ध जनहित याचिका दायर हुई है.

Supreme Court

करवाया गया 18 राज्यों में अध्ययन

कोर्ट के आदेशों के बाद केंद्र सरकार के अधीन आने वाले पंचायती राज मंत्रालय द्वारा 18 राज्यों में अध्ययन के लिए एक विशेष समिति का गठन किया गया. इस समिति ने अपने अध्ययन में महिला प्रधानों की व्यवहारिक समस्याओं के विषय में कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं. गौरतलब है कि कोर्ट के आदेशों के बाद याचिका कर्ता द्वारा मंत्रालय को अपना प्रस्तुतिकरण दिया गया.

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किया गया समिति का गठन

इसके बाद, विभाग द्वारा सितंबर 2023 में सेवानिवृत आईएएस अधिकारी सुशील कुमार की अध्यक्षता में 10 सदस्य समिति का गठन किया. उन्हें इस व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययन करने और सुझाव देने को कहा गया. समिति ने इस विषय में महिला जनप्रतिनिधियों की व्यवहारिक समस्याओं का अध्ययन किया. समिति ने अपनी रिपोर्ट नहीं सौपी है, लेकिन इसके कुछ प्रमुख बिंदु मंत्रालय से साझा किए हैं.

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दिए गए ये सुझाव

  • इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए राज्यों के लिए आदर्श कानून का प्रारूप बनाए जाने का सुझाव दिया गया.
  • पूछा गया कि क्या पंचायत सचिव पद पर राज्यों द्वारा महिलाओं के लिए 50% आरक्षण की व्यवस्था लागू की जा सकती है?
  • मैन्युअल को उन सभी भाषाओं में बनाया जाना चाहिए, जिसे कोई भी महिला- चाहे वह अशिक्षित ही क्यों ना हो, वह भी आसानी से समझ सके.

यह चुनौतियां आई सामने

समिति ने अध्ययन में पाया कि राजस्थान में महिला सरपंच द्वारा जो चुनौतियां सबसे ज्यादा महसूस की गईं, उनमें भ्रष्टाचार सबसे प्रमुख थी. महिलाओं ने जानकारी दी कि कई बार चेक पर हस्ताक्षर करने के लिए उन्हें स्वीकृति देनी होती है. तब उन्हें यह डर रहता है कि कहीं अनजाने में उनसे कोई गलती ना हो जाए और उन्हें जेल जाना ना पड़ जाए. इस डर के कारण वह अपने पति पर ही निर्भर रहती हैं. वहीं, दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ और बिहार की महिला सरपंचों ने बताया कि पितृसत्ता और जाति संबंधी पूर्वाग्रहों का उन्हें सामना करना पड़ता है. ऐसा करते हुए सरपंच के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने में उन्हें परेशानी आती है.

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